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डायन -23-Dec-2021

डायन 


भाग 2 

गतांक से आगे 
 खाना खाने के बाद डायन में थोड़ी ताकत और स्फूर्ति आ गई । उसके होंठों पर एक मुस्कान तैर गई । सुमन ने बर्तन उठाये और साफ करने लगी । डायन भी उसके पीछे पीछे आ गई और बर्तन साफ करने के लिए नीचे झुकी । सुमन ने जब ये देखा तो उसने उसका हाथ पकड़ा और चारपाई पर बैठा दिया । कहा " आप तो यहां चुपचाप बैठे रहो , मैं आपकी बेटी और कब काम आऊंगी" ? 
डायन का गला एकदम रुंध गया । आंखों से गंगा-जमुना बह निकली । जब शांत हुई तो कहने लगी " इतने दिनों से तू कहां थी मेरी बच्ची " ? 

सुमन को ये शब्द सुनकर बहुत अच्छा लगा । इन शब्दों में एक वात्सल्य झलक रहा था । जैसे दो मां बेटी न जाने कितने सालों बाद मिल रहीं हों ।  सुमन बर्तन साफ करके डायन के पास आ बैठी । उसने डायन के हाथ अपने हाथों में ले लिए और उन्हें धीरे धीरे सहलाने लगी । कितने कठोर हाथ थे उसके । जगह जगह घाव लगे हुए थे । उसने प्रश्नवाचक निगाहों से डायन की ओर देखा ।

"अरे , ये तो गांव के बच्चों के प्यार की निशानी हैं । अब यही तो मेरी थाती हैं । और कुछ तो है नहीं मेरे पास । बस , ये घाव ही हैं जो मेरे अपने है" । कहकर मुस्कुरा दी वो । 

सुमन उससे उसका अतीत जानने को बेहद उत्सुक थी , मगर उसे लगा कि अभी उसके जख्मों को कुरेदना ठीक नहीं है । इसलिए उसने बात घुमाते हुए डायन से कहा " मौसी " 

मौसी शब्द सुनकर डायन चौंकी । तिरछी मुस्कान के साथ कहने लगी " मेरा नाम डायन है । सब मुझे इसी नाम से जानते हैं गांव‌ में । तुम भी मुझे इसी नाम से बुला सकती हो" अंदर का सारा दर्द उमड़ आया था ये कहते कहते । 

"मैं आपको मौसी कह सकती हूं ना" । सुमन ने उसकी आंखों में देखते हुए पूछा । " मौसी मतलब मां जैसी" 

" तू तो मुझे कुछ भी कह सकती है, मेरी बच्ची । बोल , क्या कहना चाहती है "? 

सुमन ने संकोच से पूछा " तुम्हें "चंगा पौ" खेलना आता है " ? 
वह खिलखिलाकर हंस पड़ी । "बचपन में बहुत खेला है हमने चंगा पौ । बड़े धुरंधर खिलाड़ी थे हम इसके । कोई जीत नहीं सकता था हमसे । मगर अब तो सालों हो गए कुछ भी खेले । अब तो बस अपमान, ताने, मार पिटाई ही से खेलती हूं " और एक बार फिर से गंगा जमुना बहने लगी। 

सुमन जानती थी कि मन में भरा कड़वापन जब तक बाहर नहीं निकलेगा तब तक वह निर्मल नहीं होगी । उसने भी उसे रोने दिया । जी भरकर रोने के बाद सुमन ने फर्श पर चंगा पौ खेलने के लिए चॉक से खाने बना दिये । चंगा पौ एक तरह से लूडो का खेल है । बिना पैसे का । कोयला या खड़िया से लूडो की तरह वर्गाकार आकृति में पांच पांच खाने वाली पांच पंक्तियों में कुल पच्चीस खाने बना दिये जाते हैं । इमली के बीजों को बीच से तोड़कर पांच टुकड़ों से खेल खेला जाता है । इन बीजों के टुकड़ों को  चंगा कहते हैं । जब दाम आती है तो चंगा को जमीन पर पटक दिया जाता है । जितने चित्त आते हैं उतनी संख्या में गोटी आगे बढ़ती है । यदि चार दाने सीधे आते हैं तो वे "अष्टा" कहलाते हैं अर्थात आठ और यदि पांचों सीधे आते हैं तो "दस्सा" कहलाते हैं । यानि दस । और यदि पांचों उल्टे आते हैं तो "पंगा" कहलाते हैं यानि पांच । और अष्टा , दस्सा , पंगा आने पर पुनः चला जाता है । जिस प्रकार लूडो में छः आने पर पुनः चला जाता है , उसी तरह । 

दोनों सहायिका भी खाना खाकर वहीं आ गई। चारों मिलकर "चंगा पौ" खेलने लगी । डायन बिल्कुल बच्चों की तरह लड़ झगड़ रही थी । उसका बचपन लौट आया था । सुमन और सहायिकाओं ने देखा कि कैसे एक डायन एक मासूम बच्ची में तब्दील हो गई । 

एक बाजी खत्म हुई तो एक सहायिका चाय बना लाई । डायन ने आज बरसों बाद चाय पी थी । चाय पीते पीते उसके चेहरे पर कई भाव आ जा रहे थे । सुमन ने टेलीविजन चालू कर दिया । गाने वाला चैनल लगा दिया । फिल्म गाइड का गीत आ रहा था 

कांटों से खींच के ये आंचल
तोड़के बंधन बांधे पायल
कोई ना रोके दिल की उड़ान को 
दिल ये चला अहा हा हा आ आ आ 
आज फिर जीने की तमन्ना है 
आज फिर मरने का इरादा है ।।

डायन को ऐसा लगा कि यह गीत उसी के लिए बना है । उसको आज फिर से जीने की तमन्ना हो गई थी । उसके चेहरे पर मधुर मुस्कान तैरने लगी थी और आंखों में दृढ़ निश्चय । सुमन को लग रहा था कि उसकी मेहनत, हिम्मत और अपनापन धीरे धीरे असर कर रहा था । 

थोड़ी देर तक वे लोग टेलीविजन देखते रहे । फिर सुमन डायन को छत पर ले गई । आसमान का नजारा बड़ा खूबसूरत था । सूरज देवता अस्ताचल की ओर जा रहे थे । आसमान में बादल इधर उधर उड़ रहे थे और जैसे उनमें प्रतिस्पर्धा हो रही हो तेज दौड़ने की । शीतल मंद पवन तन और मन दोनों के संताप को हरने वाली थी । पक्षियों का कलरव बड़ा मधुर था । डायन को जो दुनिया आज सुबह तक बड़ी बेदर्द , बेदिल , बोझिल, बकवास और बेकार लगती थी , वही दुनिया आज मनमोहक, सुहावनी, आनंददायक नजर आ रही थी । सब गतिविधियों को चुपचाप देखती रही वो । 

रात का खाना बनाने की तैयारी सुमन ने करना शुरू किया । डायन बोली " सब्जी मैं काट देती हूं " 

सुमन ने उसके सामने आलू गोभी , टमाटर , अदरक, प्याज हरी मिर्च वगैरह लाकर रख दिया । डायन ने बड़े चाव से सब्जी काटी और कहा " बिटिया, अगर तुम कहो तो हम बना भी दें" ? 

सुमन चहक कुछ बोली " क्यों नहीं मौसी , आप ही बनाइए " । और मसालदानी उसके सामने रख दी , बर्तन भी रख दिये । 

" चूल्हा कहां है" ? 
"आजकल गैस के चूल्हे मिलते हैं , मौसी । और ये यहां है " और सुमन ने गैस का चूल्हा जला दिया । डायन सब्जी बनाने लग गई । उसने पूरी कुशलता के साथ सब्जी बनाई जैसे कि आज उसकी परीक्षा हो । पूरे घर में आलू गोभी की सब्जी की महक फैल गई । खाना खाकर बर्तन साफ करके वो दोनों बिस्तर पर आ गई । 

अब सुमन ने उसके अतीत को कुरेदना शुरू किया । " मौसी तुम्हारा नाम क्या है" ? 
" डायन " वह मुस्कुराते हुए बोली 
" बताओ ना मौसी । वास्तविक नाम क्या है" ? 

थोड़ी देर के लिए उसका चेहरा कठोर हो गया । 
"क्या करोगी जानकर" 
"तुम मेरी मौसी हो ना । और मुझे मेरी मौसी का नाम तो पता होना ही चाहिए न" 
वह चुप ही रही 
" ओह मौसी, आप भी बड़ी जिद्दी हो। बच्चों की तरह बहलाना पड़ता है , आपको भी" 

अब वह थोड़ी नरम पड़ी । 
"शीला" । धीरे से बोली 
"ओह मौसी, कितना अच्छा नाम है । अगर बुरा ना मानो तो एक बात पूछूं , मौसी" 

थोड़ा सोचते हुए वह बोली " पूछो" 
"नाराज़ तो नहीं होओगी ना, तुम" 
"नहीं, हरगिज नहीं। एक मां अपनी बेटी से कभी नाराज होती है क्या" ? 
"तो अपने बारे में बताओ ना, मौसी । ये हालत कैसे हुई" ? 

थोड़ी देर तक कमरे में चुप्पी छाई रही । सुमन ने उसे झिंझोड़ते हुए कहा " वो कौन लोग हैं जिन्होंने तुम्हें इस नर्क में धकेला " ? 

वह अभी भी चुप ही रही । कुछ नहीं बोली । इस बार सुमन चिढ़ गई । 
" ठीक है । दिखावे के लिए बेटी बेटी, बच्ची । और वैसे कुछ नहीं" ? गुस्से का दिखावा करते हुए वह करवट बदल कर लेट गई । 

दुनिया में सबका दिल दुखाया जा सकता है मगर "तारणहार" का नहीं । वह पसीज गई । कहने लगी " तूने आज मुझे एक नया जीवन दिया है । मैं किस तरह तेरा शुक्रिया अदा करूं । एक नर्क में पड़ी थी मैं । रोज तिल तिल कर मर रही थी मैं । आज तूने इस कंकाल में फिर से प्राण फूंक दिए हैं । अगर तू ही नाराज हो जाएगी तो मैं भी जी कर क्या करूंगी " 
इतना कहकर उसने सुमन का मुंह अपने हाथ से अपनी ओर कर लिया । सुमन उसके साथ चिपक गई । दोनों की भावनाओं का ज्वार बह निकला । 

थोड़ी देर बाद उसने कहना शुरू किया । 

मेरे पिताजी की पास के गांव में किराना की दुकान थी । हम लोग सुखी परिवार के बंदे थे । मैं दसवीं तक पढ़ी थी । हमारे गांव में दसवीं तक का ही स्कूल था । पूरी कक्षा में प्रथम आती थी मैं । घर की बड़ी बेटी थी । सबकी लाडली थी । मेरी हर फरमाइश पूरी होती थी । खाने पीने का पूरा आनंद था इसलिए कद काठी अच्छी थी । इसलिए जल्दी ही बड़ी लगने लगी थी । 

जब मैं सोलह साल की हुई तो घर में मेरे लिए लड़का तलाश करने लगे । मैंने मां से बहुत कहा कि अभी तो मैं छोटी हूं लेकिन मेरी किसी ने नहीं सुनी । इसी गांव के एक वकील का बेटा जो राजकीय विद्यालय में शिक्षक था , के साथ मेरा रिश्ता हो गया । वकील बड़ा तेज तर्रार था । पिताजी ने बहुत पूछा कि दहेज में क्या क्या चाहिए । मगर हर बार यह कहकर टालते रहे कि आपकी गुणवती बेटी ही हमारा दहेज है । मां और पिताजी तो उनकी प्रशंसा करते थकते नहीं थे । कहते थे कि हमारी शीला तो राज करेगी राज । 

इन सब बातों को सुन सुनकर मैं भी बहुत हर्षित होती थी । मन ही मन ससुर जी और "इनकी" बहुत तारीफें करती थी । मुझे ससुराल स्वर्ग लोक सा महसूस होने लगा । मैं मन ही मन मंसूबे बांधने लगी कि मैं अपने सास ससुर की ऐसी सेवा करूंगी कि सब लोग याद रखेंगे । और "इनके" लिए तो कुर्बान ही हो जाऊंगी मैं । ऐसा सोचते सोचते दिन बीत रहे थे । तब फोन वगैरह तो होते 
नहीं थे केवल चिट्ठी पत्री ही एकमात्र साधन था संपर्क का । उन दिनों लड़की लड़का ना चिट्ठी लिख सकते थे और ना ही मिल सकते थे । बस , मन मसोस कर रह जाते थे । 

मेरे मां बाप मेरी शादी की तैयारियों में जुट गए । जितनी हैसियत थी हमारी उससे दुगना खर्च कर रहे थे ।जब लग्न गई तो मेरे ससुर जी ने बहुत नाटक किया और पिताजी को गंदी गंदी गालियां बकीं । तब पहली बार हमें अहसास हुआ कि हम लड़की वाले हैं और लड़की वाले चाहे अपनी जान भी दे दें मगर लड़के वालों की मांग खत्म ही नहीं होती हैं । 

बरात आई । बरात के स्वागत की एक से बढ़कर एक तैयारी की थी मगर वकील साहब को तो कुछ भी पसंद नहीं आता । बस एक ही काम था उनका । हर चीज में नुक्स निकालना । जब घर में यह सब पता चला तो मैं आसमान से जमीन पर धड़ाम से गिरी । मैं सोच भी नहीं सकती थी कि देवता नजर आने वाला आदमी इतना नीच भी हो सकता है । तब गांव में बारात लौटना सबसे बड़ा अपमान समझा जाता था । मेरी तो बहुत इच्छा हुई कि मैं मना कर दूं शादी से लेकिन जब मैं अपने मां बाप की इज्जत और अपने छोटे भाई और बहनों का भविष्य सोचती तो कांप कर रह जाती थी । मैंने दबी जुबान से मां को यह बात बताई और शादी नहीं करने की इच्छा जताई तो उन्होंने मुझे झिड़क दिया और कहा कि शादी हो जाने दे, सब ठीक हो जायेगा । 

मैं सोच में पड़ गई लेकिन मजबूर थी । अपनी खुशी से ज्यादा मुझे मेरे मां बाप की खुशी की चिंता थी । तब मैं केवल सोलह साल की थी । ज्यादा कुछ जानती नहीं थी । इसलिए मन मसोस कर यह सब होते देखती रही । 

रात को फेरों से पहले दूल्हे राजा ने मोटर साइकिल की फरमाइश कर दी । पहले तो बताया नहीं था अब अचानक मोटर साइकिल कहां से आये । फिर बीस हजार रुपए भी तो नहीं थे घर में । मेंरे पिताजी ने वकील साहब को बहुत समझाया कि गौने पे दे देंगे । अपनी पगड़ी भी उनके पैरों में रख दी थी लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने अपनी ठोकर से पगड़ी भी उछाल कर फेंक दी थी । मुझे इतना गुस्सा आ रहा था कि अगर मेरे बस में होता तो वहीं पर मारकाट मचा देती लेकिन हमको ऐसे संस्कार नहीं सिखाये थे । जब बड़े लोग बात करते हैं तो छोटे नहीं बोलते हैं, यह सिखाया था । इसलिए खून के घूंट पीकर रह गए । 

आखिर वे इतना माने कि रात में मोटर साइकिल कहां से लाओगे इसलिए बीस हजार रुपए लेना स्वीकार कर लिया उन्होंने । मगर घर में इतने रुपए नहीं थे । अब पैसे कहां से दें ? कौन देगा इतने रुपए । हमारे गांव के साहूकार जी भी शादी में आये हुए थे । उन तक बात पहुंची तो वे पैसे देने को तैयार तो हो गए मगर हमारा मकान गिरवी रख लिया । खैर , जैसे तैसे शादी हुई और हम घर से बिदा हुए । 

हमारी शादी का नशा पूरी तरह काफूर हो चुका था । हमारा दिल खून के आंसू रो रहा था । ससुराल पहुंचते ही रही सही कसर सास ने पूरी कर दी । दान दहेज के सामान को देखकर उनकी त्यौरियां चढ़ गई। उन्होंने हमारी सात पुश्तों को कोसना शुरू कर दिया । कितनी गन्दी गन्दी गालियां दे रहीं थीं वे मैं बता भी नहीं सकती हूं । 

पीहर से समाचार आया कि पिताजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई है और उन्हें अस्पताल में भर्ती करा दिया है । मेरा मन तो हुआ कि मैं अभी की अभी दुल्हन के कपड़ों में ही चली जाऊं लेकिन लोक लाज के कारण कुछ भी नहीं कर पायी । उड़ते उड़ते सुना था कि पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था । दो तीन दिन तो वे मौत से लडते रहे लेकिन अंत में मौत जीत गई । 

मुझे ससुराल से मायके भेज दिया गया । रो रो के मेरा बुरा हाल हो गया था । मैं भी बेहोश हो गई थी । लेकिन होनी को कौन टाल सकता था । सारे काम हुए । मेरा छोटा भाई उस समय तेरह चौदह साल का ही था , वह कैसे दुकान चलाता ?  मेरी मां और छोटे भाई ने थोड़े दिन तो दुकान चलाई । बस पेट भरने लायक हो जाता था । मेरा गौना नहीं हुआ था तब । ससुराल से समाचार आया कि दस हजार रुपए का बंदोबस्त हो तो ही गौना होगा । दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हम पर । कहां से लाते दस हजार रुपए ?  

साहूकार जी ने और पैसे देने से मना कर दिया । आखिर में उन्होंने कहा " ऐसा करो , तुम ये मकान बेच दो तो मैं तुम्हें बाकी के पैसे दे सकता हूं" । 

मरता क्या न करता वाली बात यहां पर लागू हो रही थी । मां ने ऐसा ही किया । मकान बेच दिया और किराये के मकान में रहने लगा गए । ससुराल समाचार भिजवा दिया कि पैसों की व्यवस्था हो गई है । ये गौना कराने आए और मुझे बिदा कराकर ले गए । 

आदत के अनुसार सासू मां ने खूब " भजन " सुनाए । मुझे हत्यारिन तक कह दिया । नागिन कहा । मैं अपने बाप को ही डस गई थी । और न जाने क्या क्या बड़बड़ाती रहीं वे पूरे घर में । इतना पैसा खर्च करके भी ये सिला मिला था हमको । हमारा मन नहीं लगता था ससुराल में । घर का सारा काम मुझ पर छोड़ दिया था सासू मां ने  । मैं आधे होश में और आधी बेहोशी की हालत में काम करती थी । काम बिगड़ भी जाता था तो सासू मां मारती थी । मैं आधी पागल हो गई थी । 

एक दिन मैं सुबह घर की सफाई कर रही थी तो ससुर जी को कहते सुना " सब मर गए ? " 
मेरे तो पैरों तले जमीन खिसक गई थी । मेरी मां ने मेरे भाई बहन को खाने में जहर मिला दिया था और खुद भी मर गई । 

मैं तो पूरी पागल हो चुकी थी । तब पहली बार मेरी सासू ने मुझे डायन कहा था । मैं अपने ही परिवार को खा गई थी । मुझे दौरे पड़ने लगे पागलपन के । मुझे पागलों के अस्पताल में भर्ती करा दिया । छः महीने तक मेरा इलाज चला । तब मैं ठीक हुई । 

गाड़ी वापस पटरी पर आ ही रही थी कि इनका स्थानांतरण पास के ही गांव में हो गया । ये रोज मोटर साइकिल से आने जाने लगे । एक दिन एक ट्रक यमदूत बनकर आया और इन्हें अपने साथ ले गया । मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई । जब यह समाचार आया , मैं खाना बना रही थी । मैं वहीं पर बेहोश हो गई । जब मुझे होश आया तब मैंने सास को कहते पाया 

" सारा दोष इस डायन का है । पहले तो यह अपने बाप को खा गई । फिर अपने भाई बहन और मां को खा गई । अब अपने पति को भी खा गयी । सबको खा जायेगी यह । किसी को नहीं छोड़ेगी यह । बचकर रहना सब इससे । दूर दूर रहना सब इससे । यह डायन है डायन । इस गांव को मरघट बनाने आयी है ये । अरे , कोई आओ । कोई तो आओ । अरे इसे धक्के मारकर घर से बाहर निकालो ' । 

मैं हाय धक्क रह गई । यह क्या कह रही है मेरी सास । मैं कहां जाऊंगी अब ? और इस अवस्था में ? मेरे ऊपर जरा सी भी दया नहीं आती है किसी को भी । पेट में चार महीने का बच्चा लेकर कहां जाऊंगी मैं ? 

मैं अपने पति की मौत को एक बारगी भूल गई । बस, अपने अंधकारमय भविष्य के बारे में सोचने लगी । इतने में मेरी सास और ससुर दोनों आये और मेरे बाल पकड़ कर घसीटते हुए ले जाने लगे । कह रहे थे " छोरे का अंतिम संस्कार तो बाद में भी हो जायेगा , इस डायन को बाहर पहले निकालना होगा " । और इतना कहकर लात मारकर मुझे घर से बाहर कर दिया । 

मैं अभागी गर्भवती स्त्री कहां जाती ? काफी देर तक दरवाजे के सामने ही पड़ी रही । उन दुष्टों से हाथ जोड़कर विनती कर रही थी कि मुझे घर से बाहर मत निकालो लेकिन उन पर कुछ असर नहीं हुआ। 

पड़ोस की सोमा चाची मुझे अपने साथ अपने घर ले गई । लेकिन दूसरे ही दिन मेरी सास यहां भी आ गई और सोमा चाची को खूब बुरा भला कहा और मुझे वहां से निकलना पड़ा । मेरी सास ने पूरे गांव में मुनादी करा दी कि मैं डायन हूं और जो कोई मुझे शरण देगा उसका सत्यानाश हो जाएगा ।‌

फिर किसी की हिम्मत नहीं हुई मुझे शरण देने की ।  मैं गांव से बाहर आ गई । एक कुए के पास बैठी रही । खूब रोयी । कुएं में कूदकर जान देना चाह रही थी मगर पेट में पल रहे बच्चे का ध्यान आया तो पीछे हट गई । वह रात मेरी उसी कुवे पर गुजरी , भूखी प्यासी । भगवान ऐसे दिन किसी को नहीं दिखाए । 

यह कहते कहते शीला की रुलाई फूट पड़ी । बहुत देर तक रोती रही वह । सुमन ने उसे अपने बाजुओं में कसकर अपने गले से लगा लिया था । आज उसका सारा गुबार निकल रहा था । अब वह हलकी लग रही थी । 

जब वह संयत हुई तो फिर कहने लगी " मैंने वहीं पर एक घास फूस की छोटी सी झोपडी बना ली और उसी में रहने लगी । गांव की औरतें मुझे डायन कहने लगी थी इसलिए मुझे कोई रोटी भी नहीं देता था । दिन में मैं गांव से दूर शहर की ओर चली जाती थी । वहां एक सड़क किनारे बैठ जाती । कोई पैसे दे देता तो कोई रोटी डाल देता । कोई गुड़ , चने डाल देता था । शाम को वो रोटी, गुड़, चने और पैसों से कुछ सामान खरीद लाती और अपनी झोंपड़ी में आ जाती । पेट में पल रहे जीव का तो ध्यान रखना था । जब तक खाने का सामान रहता मैं झोंपड़ी में पड़े रहती और जब खत्म हो जाता तो फिर शहर चली जाती । इस तरह दिन गुजर रहे थे । 

एक रात मुझे बहुत जोर का दर्द हुआ । शायद बच्चा होने वाला था । मेरे पास कोई नहीं था । मैं बहुत जोर से चिल्लाई । रोई । मगर कोई नहीं आया मेरे पास । कुछ लोग झोंपड़ी के बाहर आ तो गए थे लेकिन मेरे पास कोई नहीं आया । मैं दर्द से तड़प रही थी लेकिन मेरी पीड़ा समझने वाला कोई नहीं था । ऐसा लग रहा था कि गांव में इंसान नहीं , पत्थर रहते हैं । 

बच्चा आधा बाहर आ गया था । मैं असहनीय दर्द के कारण बेहोश हो गई । न जाने मुझे कब होश आया पता नहीं । मुझमें बिल्कुल भी शक्ति नहीं रही थी । मेरे पास मेरा बच्चा पड़ा हुआ था । निश्चेष्ट । कोई हरकत नहीं कर रहा था । अब रोने की भी शक्ति नहीं रही थी मुझमें । मैं फिर बेहोश हो गई । आखिरी उम्मीद भी अब खत्म हो चुकी थी । 

मैं अर्द्ध विक्षिप्त की तरह पूरे गांव में घूमने लगीं । लोगों को डराने में अब मुझे मजा आने लगा । लोग मुझ पर पत्थर ईंट मारने लगे । मैं तो चाहती थी कि मैं मर जाऊं । लेकिन मैंने न जाने कौन से पाप किए थे जो भगवान मुझे मौत भी नहीं देते थे । लोग मुझे डायन डायन कहकर चिढ़ाते थे । मैं भी अपना असल नाम भूल गई और डायन बन गई । 

एक बार फिर से भावनाओं का ज्वार बहने लगा । शीला और सुमन उस ज्वार में पूरी तरह बह रही थीं । अब वास्तव में वे दोनों मां बेटी जैसी लग रही थीं । सुमन ने शीला को अपनी बाहों में भरकर सुलाया ।  

दूसरे दिन सुबह उठकर सुमन ने चाय बनाकर शीला को दी । शीला का ग़म सुमन के प्यार में कहीं गुम हो रहा था । दोनों मौसी बेटी बड़ी जल्दी घुल-मिल गए थे । शीला सुमन का हाथ बंटाने लगी । वह छोटे बच्चों के साथ खेलती । बारहखड़ी पढाती। गिनती, पहाड़े सिखाती। पोषाहार तैयार कर देती । इस तरह से शीला अपनी जिंदगी में धीरे धीरे वापस लौटने लगी । 

एक दिन सुमन शीला को लेकर अपने विभाग के मंत्री जी के पास गई और शीला की पूरी कहानी बताई । मंत्री जी शीला और सुमन से बहुत प्रभावित हुए । अंत में सुमन ने एक फेवर चाहा कि शीला को उसके साथ सहायिका लगा दिया जाये । मंत्री जी ने उसके काम को देखते हुए सुमन की बात मान ली और शीला को सहायिका बना दिया । दोनों मौसी बेटी ने गांव की समस्त औरतों को समझा कर उन्हें आंगनबाड़ी केंद्र पर ले आईं । गांव की सोच में अब परिवर्तन आने लगा था । 

सुमन के काम की ख्याति दूर दूर तक फैलने लगी । इस बार गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में उसे राज्य स्तरीय पुरस्कार के लिए बुलाया गया है । 
समाप्त 

हरिशंकर गोयल "हरि"
4.12.20


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